Sunday, August 26, 2007

नारी एक कला है

कुशल तूलिका वाले कवि की नारी एक कला है
फूलों से भी अधिक सुकोमल
नरम अधिक नवनी से
प्रतिपल पिछल-पिछल उठने वाली
अति इन्दु मनी से,
नवल शक्ति भरने वाली वह कभी नहीं अबला है

तनया-प्रिया-जननि के
अवगुण्ठन में रहने वाली,
सत्यं शिवम् सुन्दरम् सी
जीवन में बहने वाली
विरह मिलन की धूप-छाँह में पलती शकुन्तला है।

है आधार-शिला सुन्दरता की
मधु प्रकृति-परी सी,
शुभ संसृति का बीज लिये,
मनु की उस तरुण-तरी सी,
तिमिरावृत्त जीवन के श्यामल पट पर चंद्र्कला है

करुणा की प्रतिमा वियोग की
मूर्ति-मधुर-अलबेली
निज में ही परिपूर्ण प्रेममय
जग आधार अकेली,
सारी संसृति टिकी हुई ऐसी सुन्दर अचला है

अमृत-सिन्धु,तू अमृतमयी
जग की कल्याणी वाणी।
अब भी चम-चम चमक रही हैं
तेरी चरण निशानी
तेरे ही प्रकाश से जगमग दीप जला है
नारी एक कला ह

Wednesday, July 11, 2007

महाकवि तुलसीदास और उनका मानस


कवि-कुल-कमल-दिवाकर प्रातः स्मरणीय भारती कंठ गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य हैं और "रामचरित मानस" है उनका अमर महाकाव्य। तुलसीदास का काव्य विशेषकर "रामचरित मानस", जीवन के प्रत्येक क्षण के लिए पथ प्रदर्शक है।सूर्य प्रचण्ड होता है।वह प्रतिदिन उदित होता है।उसमें असीम शक्ति है विश्व के कोने-कोने से अन्धकार को विदीर्ण करने की।वह जगत के प्राणों का पोषक है और संवर्द्धक है जड़ और चेतन का।वह सर्वप्रिय,सर्वकालीन और विश्वव्यापी है।महाकवि तुलसीदास में ये सब गुण ज्यों के त्यों पाए जाते हैं।डाक्टर ग्रिअर्सन ने कहा है, "यद्यपि तुलसीदास ने कबीर आदि की तरह अपना कोई अलग मत नहीं चलाया,परन्तु चाहे किसी मत और धार्मिक विश्वास का हिन्दू क्यों न हो,वह गोस्वामी तुलसीदास जी के दिखाये मार्ग का अवश्य अनुसरण करेगा। इन्होंने धर्मनीति, समाजनीति और राजनीति को आर्षग्रंथों के अनुसार सीधी-सादी भाषा में इस प्रकार उदाहरण के साथ लिखा है कि शैव, शाक्त ,स्मार्त, वैष्णव किसी के सिद्धान्त से विरोध नहीं पड़ता और सभी उसका सम्मान करते हैं, तथा साधारण लोगों की समझ में भी सब कठिन बातें खचित हो जाती हैं।""रामचरित मानस" का पूर्ण प्रभाव, बिहार से पंजाब और हिमालय से विन्ध्याचल तक,करीब ७० करोड़ मनुष्यों पर है। दूसरी ओर,भारत के शेष भागों पर अपेक्षाकृत कम।उत्तर भारत में ऐसा कोई गाँव नहीं, जहाँ "मानस" की प्रति न हो। शिक्षितों की बात छोड़िये, अनपढ़ों की जिह्वा पर "राम चरितमानस" के दोहे-चौपाइयाँ रहती हैं तात्पर्य ये है कि राजा-रंक, महल-झोपड़ी, जन-साधारण और कला मर्मज्ञ सबों के बीच में यह आदृत है।
मानस की पृष्ठभूमितुलसीदास के पूर्व तथा उनके समय में भी भारतीय जन-जीवन की व्यवस्था पूर्णतः छिन्न-भिन्न थी।चरों ओर घोर निराशा,उत्साहहीनता और उदासीनता। लोगों को जीने की कोई अभिलाषा नहीं थी। दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के मतवाद का प्रचलन। सबों का अलग-अलग राग, अलग-अलग नीति। प्रत्येक मत अपनी सर्वश्रेष्ठता का डंका बजाने में तल्लीन था।इससे जन-जीवन का दुःख दूर नहीं हुआ, बल्कि मर्ज बढ़ता ही गया। ऐन मौके पर, निराशा के गहन कुहरे में, बाल रवि सदृश तुलसीदास का उदय हुआ। तुलसीदास जी स्वयं उसी परम्परागत समाज-व्यवस्था के पोषक थे। पर उनके समक्ष यह समस्या उपस्थित हुई कि आम जनता, जोमानसिक संतापों कि धधकती भट्ठी में घुल-घुल कर जल रही है, कि मुक्ति किस प्रकार हो।कौन सा रास्ता अप्नाया जाये जिससे उनका जीवन सुखमय हो सके।अतः इसके निवारणार्थ,उन्होंने राम के चरित्र, उनके जीवन की प्रत्येक स्वाभाविक स्थितियों, और उनके सम्पूर्ण कार्य-कलापों को कथानक के रूप में "मानस" में सफल चित्रण किया। इससे, जनता को आत्मिक सन्तोष हुआ। उसके सारे संकत दूर होते प्रतीत हुए। हिन्दू समाज में एक प्रकार की एकता और सघनता की सृष्टि हुई।


काव्य सुषमा

तुलसीदास जी जहाँ यह कहते हैं कि 'स्वान्तः' सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबन्ध मतिमंजुलमातनोति' वहाँ वह यह भी कहते हैं--

मणि-मानिक-मुक्ता छवि जैसी।
अहि-गिरि-गज-सिर सोहत तैसी॥
नृप-किरीट तरुणी-तन पाई ।
लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
तैसेहि सुकवि-कवित बुध कहहीं।
उपजहिं अनत-अनत छवि लहहिं।

तात्पर्य है कि मणि माणिक और मोती की जैसी असली शोभा है वैसी वह साँप पर्वत और हाथी के मस्तक पर नहीं होती।राजा का मुकुट और युवती का शरीर पाकर इनकी वहाँ से शोभा अधिक होती है। उसी प्रकार कविता उत्पन्न होती है अन्यत्र और उसकी शोभा होती है कहीं दूसरी जगह। श्रेष्ठ कविताएँ कवियों के हृदय में उत्पन्न होकर वहीं नहीं रह जातीं,बल्कि सहृदय पाठकों तक पहुँचती हैं और उन्हें भी आनंदित करती हैं। जो कविताएँ दूसरों तक नहीं पहुँचती तथा आनन्द प्रदान नहीं करती वे किसी भी तरह से कविताएँ कही ही नहीं जा सकती हैं।अतः इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तुलसीदास जी ने कला के पूर्ण तथा व्यापक रूप की व्यापक स्वरूप की जो व्याख्या की है वह स्वान्तः सुखाय होते हुए भी परान्तःसुखाय ही है।कला की उत्पत्ति होती है अन्तःकरण में।पर जब तक हृदय में सच्ची तल्लीनता का आविर्भाव न होगा,वास्तविक कला की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती।यह उतना ही सत्य है जितना मृत्यु का होना। काव्य एक कला है और रस है उसकी आत्मा। 'रामचरित मानस' - श्रॄन्गार, हास्य, करुण, भयानक, वीर रौद्र, वीभत्स, अद्भुत और शांत नौ रसों का अक्षय उदधि है।इन नौ रसों के द्वारा कवि की रसानुभूति, मन्दाकिनी-सी कलकल श्रुति मधुर निनाद से बढ़ती हुई प्रतीत होती है। और शब्द चित्रों के सुन्दर सामन्जस्य से भाव जगत साकार हो उठता है।

तो अंततः यह स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसीदास केवल महाकवि ही नहीं, प्रत्युत संत,सामाजिक प्रगति के दूत और जन-मन के गायक थे,

"सम्पादक की वाणी"

अंग्रेज़ी सभ्यता रीति को दूर भगाने वाली

जन-जन को झकझोर ज़ोर से रोज़ जगाने वाली

स्वयं बनी मार्जनी स्वरूपा "सम्पादक की वाणी"

भारत और भारती की जाग्रत वाणी कल्याणी

अपनी श्वेत प्रभा से भाषा से नवराष्ट्र विधात्री

सम्पादन की शुचि रुचि से जन जन की प्राण प्रदात्री

मनुज मनुज को यह प्रदीप्त देवत्व प्रदान करेगी

जीवन में यज्ञीय-प्रतिष्टा प्रद सम्मान वरेगी

सम्पादक की वाणि! देवि! यह अभिनन्दन है मेरा

शाक्त शक्ति जाग्रत कर दो तम हर दो हँसे सवेरा